Sunday, May 5, 2013


सीनियर बनाम जूनियर गुलाम


-शीबा असलम फ़हमी

एक इंसान का अस्तित्व किन कारकों से तय होता है? जिस परिवेश में वह रहता है, उसकी जानकारी, समझ या उस परिवेश के कत्र्ता-धर्ता के तौर पर उसकी हिस्सेदारी, वहां लिए जा रहे फैसलों में उसके योगदान से। कहने का मतलब उसकेतजुर्बेसे तय होता है, उस इंसान का वजूद। किसी भी इंसान का वजूद सिर्फ और सिर्फ उसके तजुर्बे (जानकारी और समझ) का कुल जमा होता है। बड़े से बड़े नामों से उसके तजुर्बे से खाली कर के देखिये, क्या बचता है? शून्य। इसीलिए हमारा तजुर्बा ही हमारा सबसे बड़ा औजार है जीवन में। आप जिस भी सिस्टम या व्यवस्था का हिस्सा हैं। अगर आपको वहां मौजूद तो रखा जाए लेकिन उसकी पूरी जानकारी आपको दी जाए। जानकारी के अभाव में आपकी उस सिस्टम के बारे में कोई समझ विकसित नहीं हो, समझ ही नहीं होगी तो फैसलों में आपको शामिल करने का क्या मतलब होगा? लिहाजा आप जिस सिस्टम का हिस्सा हैं, उसे जारी रखने की प्रक्रिया में आपका रोल नगण्य हो गया। ऐसी व्यवस्था में आपको जो सीमित जानकारी दी गई, आप उसी सीमित दायरे में अपना योगदान दे सकेंगे। उसके इतर की दुनिया में आप शून्य रहेंगे, वहां आपको जानकार लोगों पर निर्भर रहना होगा। लिहाजा आपका तजुर्बा या अनुभव ही तय करता है कि आप वहां कितनी मात्रा में सत्ता का सुख भोगनेवाले हैं। दुनिया में जब मुल्क चलाने के नए निजाम बने तो इस बात का ध्यान रखा गया कि सारी की सारी सत्ता एक ही मुट्ठी में कैद हो जाए। इसके लिए ही सत्ता को बांटा गया, कर्त्तव्यों को बांट कर। कर्त्तव्य सीमित हो गए तो अधिकार क्षेत्र भी सीमित हो गए। किसी एक के हाथ में सम्पूर्ण अनुभव हो, इसकी व्यवस्था की गई। तो जनाब ये जोअनुभव की सीमाहै, इसी से सत्ता में भागीदारी का स्तर तय होता है। महिलाओं के मामले में अनुभव की सीमा हैरसोई प्लस घर घर के बाहर की दुनिया कैसे चलती है, यह जानकारी महिलाओं से जब से छुपा ली गई; तभी से महिलाएं सत्ता में भागीदार नहीं रहीं। यह तो हुई एक बात। इसी प्रक्रिया का अगला चरण होता है, आपके अनुभव या डिस्कोर्स (रसोईघर) को मालिकों द्वारा अपने लिए ढालना। यानी आपके अतिसीमित अनुभव को मालिक के फायदे के लिए सिस्टम में इस प्रकार पिरोना की आप उसे ही अपनी मुकम्मल पहचान मान लें। ऐसे कि वह आपका वजूद बन जाए। आप उसी में अपनी सफलता-िवफलता देखें। स्वादिष्ट खाना पकाने के लिए मिली तारीफ या गहना मिलना, केवल मालिक की खुशी ही नहीं दर्शाता है। उसका असली काम होता है आपको आपके तयशुदा रोल में फिक्स करना, आपकी ही नजर में। आत्मसम्मान इंसान की बुनियादी जरूरत है। यह उसे जहां से मिलेगा, वहां से उसे बार-बार हासिल करना चाहेगा। अगर घर का कामकाज, संचालन, रसोई, स्वादिष्ट पकवान, बच्चे पैदा करने और मालिक के लिए बिस्तर पर आकर्षक बने रहने से यह आत्मसम्मान मिलता है तो इंसान खुद को उसी दिशा में निपुण बनाएगा ? (महिलाओं के मेकअप के खर्चे से जो पुरु त्रस्त हैं, वह गौर करें) ऊपर हमने एक खाका खींचा है। अब इसमें सही जगह पर आप खुद महिला की स्थिति से इस बात को मुक्कम्मल कर सकते हैं। लेकिन यह लेख इस विषय पर नहीं है। इसका विषय है-मालिक का प्रिय-पात्र कौन होगा? दूसरे शब्दों मेंऔरत ही औरत की दुश्मन होती हैको समझना। आपने किसी दफ्तर में कर्मचारियों के बीच में चपरासी का प्रिय-पात्र बनने की होड़ देखी है कभी? नहीं ? होड़ तो हमेशा मालिक का प्रिय-पात्र बनने की ही होती है। मालिक का प्रिय वही होता है, जो मालिक के एजेंडे को लागू करे। उस प्रक्रिया में अगर गुलाम को अपने साथी गुलाम का अहित भी करना पड़े तो वह इसे अपनी कार्य निपुणता का हिस्सा मान कर करता है। व्यवस्था में वरिष्ठ गुलाम (सास या ननद) को मालिक के एजेंडे की भली भांति पहचान होती है। वह मालिक के नजदीक होता है। मालिक को बेटा चाहिए, बेटी नहीं। इसलिए बहू के बच्चा जनते ही वरिष्ठ गुलाम मालिक का एजेंडा लागू कर देता है। अगर जूनियर गुलाम उसमें राजी है तो वह भी मालिक का प्रिय बन सकता है वरना मालिक और सीनियर गुलाम उसेबाहरवाला’ बना के रखेंगे। सीनियर गुलाम को वर्षो की गुलामी के बाद जो मामूली-सा हक उम्र के आखिरी पड़ाव पर, पॉवर-शेयरिंग में मिला है, उसे वह हरगिज नहीं खो सकता। और गुलाम केअनुभव की सीमा’ के चलते उसे सिर्फ अपने मालिक का बर्ताव पता है। गुलाम का रोल-मॉडल मालिक ही होता है, जब उसे सत्ता मिलती है तो मालिक का रोल वह वैसे ही तो निभाता है, जैसे असली मालिक। गुलाम का अनुभव संसार इतना सीमित होता है कि वह यह सोच नहीं सकता कि एक ऐसी भी दुनिया हो सकती है, जहां ˜मालिक-गुलाम हों, सभीसाथी-मित्रहों। जलियांवाला बाग कांड में  एक मालिक (जनरल डायर) ने ˜एक शब्द का आदेश (फायर) दिया था, अपने गुलाम बंदूकधारियों को और उस एक शब्द के आदेश पर ही गुलामों ने अपने ही जैसे हिन्दुस्तानियों को बिना किसी हिचक के गोलियों से भून दिया था। अगर जलियांवाला बाग कांड पर कोई समझदार यह कहे किहिन्दुस्तानी ही हिन्दुस्तानी का दुश्मनथा, गोली जनरल डायर ने तो नहीं चलाई थी, तो आप ऐसे घामड़ का सिर तोड़ देंगे या नहीं? जिन समाजों ने पॉवर-शेयरिंग में जितनी ईमानदारी रखी है, वहां आपसी रिश्ते उतने ही दोस्ताना हुए हैं। आखिर दोस्ती तो बराबरवालों में ही मुमकिन है वरना सत्ता-तंत्र में बिंधे रिश्ते साजिश, जलन, हसद और नफरतों की वही दुनिया बनाएंगे जो आप टीवी सीरियलों में बिना विचलित हुए देख रहे हैं। जहां मालिक (पति/बेटा/बाप/ससुर) को हासिल करना ही गुलामों की कामयाबी की कुंजी है। खुशी की बात है कि अब कुछ महिलाएंअनुभव की सीमाका दायरा बढ़ा पाने में कामयाब हैं। वह अपनी काबलियत के बल पर सत्ता की भागीदार हैं। सत्ता-सहभागिता ने उन्हें बराबरी के रिश्तों को गढ़ना सिखाया है। समाज को मैत्रीपूर्ण रिश्तों की तरफ ले जाने की यह पहली शर्त है।